हाल ही में विज्ञान जगत में ऐसी खोज हुई है जो विज्ञान के द्रष्टा आइन्सटीन की परिकल्पना को वास्तविकता में उतार लायी है। ब्लैक होल की तस्वीर को तमाम गणनाओं के आधार पर निर्मित किया गया जिससे एक धुंधली तस्वीर नज़र आ रही है जो सौर्य मण्डल के ग्रहों के समान ब्लैक होल को चित्रित कर रही है। दूसरी तरफ कई ऐसे प्रयोग भी हुए जिनकी विवेचना करते हुए वैज्ञानिक दार्शनिक उलझनों के चलते हैरतअंगेज नतीजे निकाल रहे हैं। हाल ही में न्युरल नेटवर्क आधारित आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स ‘अल्फा गो’ को मानव चेतना से उन्नत बताया जा रहा है। फिर से यह दोहराया गया कि मशीन अब इंसान की तरह ही चिन्तन कर सकती है और उससे भी आगे जायेगी। अल्फा गो आर्टिफिशियल इंटेिलजेन्स का ही अग्रणी संस्करण है जो शतरंज में गैरी कास्पारोव को हराने वाले कम्पयूटर डीप ब्लू के बाद फिर से सुर्खियाें में आया है। एक अन्य प्रयोग में एंटी मैटर (ब्रह्माण्ड में पदार्थ जगत की एक खास अवस्था संरचना है जिसके गुणों के बारे में बेहद कम ज्ञान है) के बारे में मिली नयी जानकारी को पदार्थ जगत की अबोधगम्यता को दूर करने का ‘अन्तिम’ साधन माना जा रहा है! ‘अबोधगम्यता’ चूँकि इन वैज्ञानिकों के दर्शन में ही है अत: यह कभी दूर नहीं हो सकती है! एक अन्य प्रयोग में इन्टेगल्ड फोटोन (सम्बद्ध फोटोन, फोटोन रौशनी के कण होते हैं जो क्वांटम जगत के नियमों का पालन करते हैं) पर प्रयोग को कई बार दोहराये जाने पर भिन्न-भिन्न नतीजे आने को वस्तुगत यथार्थ का खण्डन बताया गया। इस प्रयोग से जुड़े वैज्ञानिक िज़्वलिंगर का यह कहना भी है कि यह शोध यह साबित करता है कि पदार्थ से पहले सूचना मौजूद होती है और इस तरह यह प्रयोग बाइबल की इस उक्ति को सिद्ध करता है कि ‘’शुरुआत में केवल शब्द था’’! इस पर हम आगे िवस्तार से बात करेंगे। नये प्रयोगों को लेकर वैज्ञानिक दार्शनिक विभ्रमों की वजह से गलत नतीजों तक पहुँचे। जब वैज्ञानिकों की दार्शनिक उलझनें तमाम अखबारी खबरों तक पहुँचती है तो यह फूहड़ फेंटेसी में तब्दील हो जाती है। वैज्ञानिकों की दार्शनिक उलझन व अखबारी खबरों की फूहड़ फैंटेसी की चीरफाड़ करना एक ज़रूरी कार्यभार है। इसके तहत ही हम मौजूदा दौर के प्रातििनधिक शोध के दाशर्निक विवेचन व आम जनता के बीच इसे लेकर फैलाये जा रहे भ्रम की आलोचना पेश कर रहे हैं। परन्तु पहले हम मौजूदा दौर में विज्ञान जगत में मौजूद दार्शनिक समझदारी का एक संक्षिप्त ब्यौरा देंगे जिससे वर्तमान वैज्ञानिक विभ्रमों को समझने में आसानी हो।
प्राकृतिक विज्ञान में दार्शनिक उलझन
दरअसल विज्ञान जगत में जिन दार्शनिक प्रणालियों का बोलबाला है वे अक्सर काॅम्टे के ‘पॉज़िटिव साइन्स’ से माख के अनुभवसिद्ध आलोचना दर्शन से होते हुए नव-काण्टवादी अन्तर्वस्तु तक पहुँचती हैं। आज बक़ायदा दर्शन की एक धारा के रूप में विज्ञान दर्शन अस्तित्व में आया है जिसके सितारे कार्ल पॉपर, थॉमस कुन और पॉल फेयराबैंड हैं जिनका वैज्ञानिकों पर अच्छा खासा प्रभाव है।
पॉपर से लेकर कुन और ‘अगेन्स्ट मेथड’ लिखने वाले दार्शनिक फेयराबैंड नव-काण्टवाद की धुन्ध फैलाते हैं। ये सभी 20 वीं शताब्दी में विज्ञान के विकास और बहसों की अन्तर्वस्तु में जाये बिना, आइन्सटाइन के सिद्धान्तों, उनके सिद्धान्त के दार्शनिक मर्म का खंडन किये बगैर तथा हाइज़ेनबर्ग से श्रोडिंगर और फिर आगे क्वांटम मैकेनिक्स को बढ़ाने वाले डिराक द्वारा प्रतिपादित फ़ील्ड िथयरी के विकास और उसके तमाम मॉडल को विस्तारित करने वाले बेल, फेयनमेन सरीखे वैज्ञानिकों के द्वारा विकसित प्रणाली को आगे बढ़ाने की जगह विज्ञान के विकास पर ही प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं। पॉपर सरीखे ‘प्राकृतिक विज्ञान दार्शनिक’ द्वन्द्व समझ पाने में असमर्थ हैं। पॉपर के अनुसार कोई भी सिद्धान्त जबतक सभी व्यावहारिक अनुभवों पर सत्यापित होता है वह सही होता है और अगर एक बार भी वह सत्यापित न हो तो सिद्धान्त पूणत: गलत हो जाता है। इसके इलावा हर सामान्यीकरण अमान्य होता है। पॉपर दरअसल भौंडे व्यवहारवादी हैं जो कि यह बता नहीं सकते कि कोई नया सिद्धान्त किस तरह बनता है। यह सवाल उनके लिए ‘हिट एण्ड ट्रायल’ सरीखा है। वे ऐतिहासिकता को खारिज कर देते हैं और फिर किसी भी सिद्धान्त का पैदा होना महज संयोग और जीनियस के कारण होता प्रतीत होता है। दूसरी तरफ़ फेयराबैंड के दर्शन में भी विज्ञान के विकास में कोई निरन्तरता ढूँढ़ना मूर्खता कहलाती है। यह ड्युई के अभिकरणवाद और व्यवहारवाद का ही प्राकृतिक विज्ञान का दार्शनिक रूप है। थामस कुन इन दोनों की आलोचना यह कहते हुए करते हैं कि हर व्यवहार दरअसल पुराने सिद्धान्त की रोशनी में ही आगे बढ़ता है और विज्ञान का विकास इतिहास पर निर्भर करता है और यह विकास महज ‘हिट एण्ड ट्रायल’ पर आधारित नहीं है। परन्तु कुन का इतिहास ऐतिहासिक नहीं है बल्कि केवल घटनाओं का कुल सम्मुचय बन कर रह जाता है जो यह नहीं बता सकता कि क्यों विज्ञान का विकास खास ऐतिहासिक काल क्रम में हुआ और कुछ खास कालक्रम में नहीं। यह विज्ञान के मौजूदा संकट को भी समझाने में अक्षम है। आज इन विज्ञान के दार्शनिकों के इलावा विज्ञान में ईश्वर के लिए जगह ढूँढने वाले, हाइजनबर्ग, ओस्टवाल्ड और पॉइन्केअर के चेले फिर सर उठा रहे हैं जबकि इतिहास में इनके दर्शनों के सर कलम किये जा चुके हैं। गफलतों की एक पूरी परत आज विज्ञान की उन बहसों पर पड़ी है जिससे आगे बढ़कर विज्ञान की शाखाएँ विकसित होतीं परन्तु पूँजी के बोन्साई गमलों में विज्ञान का विखण्डित विकास होता है। भौतिकवादी चिन्तन से कोसों दूर खड़े विज्ञान में जब भी नयी खोज होती है तो हाय-तौबा मच उठती है। पेराडाइम की ऐतिहासिकता को समझे बिना ‘पेराडाईम शिफ़्ट’ का इंतज़ार कर रहे वैज्ञानिक अटके हुए हैं और भटके हुए हैं। इतिहास की गतिकी में विज्ञान के विकास को समझने की जगह पैराडाईम वस्तुगतता से मुक्त बन गया।
इन दार्शनिकों की जो मूल समझदारी है वह प्राकृतिक विज्ञान के दर्शन द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी से इतर है। आगे इनके पूर्ण चिन्तन जगत में विचरण करने हुए हम इनके वैज्ञानिक सिद्धान्तों के मूल्यांकनों पर भी बात करेंगे जिससे कि इस बात को समझा जा सके कि कैसे इनका चिन्तन रोलर-कोस्टर झूले की तरह है जो गोल-गोल घूमकर विचारों को कहीं आगे नहीं बढ़ता है, हाँ आपको चक्कर ज़रूर आने लगता है। इस दार्शनिक उलझन को पॉप्युलर साइंस के नाम पर लोगों में पेश करने वाले ऐसे ही एक युवाल नोवा हरारी है जिसके अनुसार जल्द ही बिग डॉटा व एआई के बढ़ने के कारण डाटाइज़्म नामक एक नयी विचारधारा पैदा होगी जिसमें मानवीय चेतना की जगह एआई की समझ व बिग डाटा से फैसले किये जाएँगे। इस समय मानवों की प्रजाति होमो सेपियेन्स की जगह होमो ड्युस पैदा होगा जिसके जीवन का आधार सूचना होगा। यह तो मूर्खता का केवल ऊपरी भाग है अभी हमें इस मूर्खता के हिमखण्ड के निचले भाग तक पहुँचना है। आर्टिफिशियल इंटैलिजैन्स की तकनोलोजी को लेकर मौजूद भ्रमों पर हम अपनी बात यहाँ रख रहे हैं।
अल्फा गो का प्रयोग: मानवीय चेतना पर मँडराता खतरा
आज स्मार्ट फोन में गूगल असिस्टेंट, सिरी से लेकर गूगल इमेज सर्च में, कम्युप्टर गेम्स में, शेयर बाज़ार के उतार-चढ़ाव को समझने में आर्टिफिशियल इन्टेलिजेन्स का इस्तेमाल हो रहा है। इसका उदाहरण गूगल इमेज सर्च होता है। मसलन इमेज सर्च करने वाले एआई को इनपुट के तौर पर एक तस्वीर जिसमें टै्फिक लाइट हो और एक अन्य तस्वीर जिसमें टै्फिक लाइट न हो का इनपुट दिया जाये। नतीजे के तौर पर हम चाहते हैं कि एआई उस तस्वीर काे पहचाने जिसमें ट्रेफिक लाइट नहीं है तो यह काफी हद तक तस्वीरों में सही मूल्यांकन कर लेती है। अल्फा गो ‘गो’ बोर्ड गेम को खेलने वाला गूगल द्वारा बनाया आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स प्रोग्राम है जिसने मौजूदा मानव चैम्पियन को खेल में हरा दिया। यानी यह कम्पयुटर आधारित प्रोग्राम है जिसे चलाने के लिए काफी उन्नत गति वाले कम्युप्टर की ज़रूरत होती है। इस तकनोलोजी को समझना ज़रूरी है अन्यथा लोग ऐसे नतीजों पर पहुँचेंगे कि जल्द ही मशीन इंसान को गुलाम बना लेगी। अल्फा गो द्वारा गो गेम में विजयी होना कुछ साल पहले हुए गैरी कास्पारोव और डीप ब्लू के बीच मैच की स्मृति याद दिलाता है। इस घटना पर हमने आह्वान के पन्नों पर पहले भी लिखा था। आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स के उद्भव और इसके विकास को समझने के लिए पाठक वह लेख पढ़ सकते हैं। जहाँ डीप ब्लू सिम्बोलिक आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स पर आधारित था तो अल्फा गो न्यूरल नेटवर्क पर आधारित है। सिम्बोलिक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस किसी समस्या को उसके हिस्सों, उसके आपसी सम्बन्धों और प्रक्रिया का इनपुट मिलने पर हल कर लेता था। इसकी इसलिए आलोचना की गयी कि यह किसी समस्या को समझता नहीं है बल्कि मशीनी गणना के आधार पर सुलझाता है और इंसानों द्वारा इस्तेमाल की गयी रणनीतियों पर निर्भर होता है। इससे आगे बढ़कर ही मानवीय न्यूरॉन तंत्र के आधार पर 'आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क' बनाया गया जिसका मकसद वास्तव में समस्याओं को ''समझना'' है। इस कृत्रिम तंत्र में तमाम आर्टिफिशियल न्यूरान एक दूसरे से जुड़े होते हैं जो नेटवर्क कहलाता है। न्यूरान की कई परतें एक दूसरे के साथ जुड़ी होती हैं। कुछ महानुभवों का दावा यह है कि इस कृत्रिम तंत्र में चेतना पैदा हो जाती है। इसका ढाँचा नीचे तस्वीर में दिया गया है।
मानव के तंत्रिका तंत्र की प्रतिलििप में चेतना पैदा हो जाने के दावे की पड़ताल करते हैं। 'आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क' एक उन्नत मशीन ही है। मशीन एक जटिल औजार है और औजार एक साधारण मशीन। औजार या मशीन अन्तत: मानवीय इन्द्रियों और उसके अंगाें का ही विस्तार होते हैं। कृत्रिम चेतना को मानव चेतना से मुक्त चेतना मानना व यह कल्पना करना कि चेतना कोई ऐसी चीज़ है जो मानव के बाहर भी निर्मित की जा सकती है यांत्रिक भौतिकवादी अवधारणा है। यांत्रिक भौतिकवादी चेतना को बिजली के समान मानते हैं जिसे प्राकृतिक रूप मंे बादलों की टकराहट में पाया जाता है तो उसे बाँध में पानी को टरबाइन पर गिराकर भी पैदा किया जा सकता है। बिलकुल ऐसा ही गूगल के पीटर नॉरविग का तर्क है कि जिस तरह पक्षी की उड़ान को कृत्रिम तौर पर हवाई जहाज भी उड़ सकता हैे इसी प्रकार मानव मष्तिष्क की चेतना को मशीन में पैदा किया जा सकता है। परन्तु चेतना कोई प्रोटिन का मॉलिक्युलर संरचना या बिजली नहीं बल्कि मानव मष्तिष्क पुँज आधारित भौतिक यथार्थ है जो जीवन के जटिल तानेबाने यानी समाज में विकसीत होती है। चेतना द्वारा अर्जित मानव ज्ञान मानव के उत्पादक, सामाजिक संघर्ष और वैज्ञानिक प्रयोगों के व्यवहार से पैदा होता है। इस कारण ही मानव ज्ञान नित निरंतर उथले से गहरेपन की ओर बढ़ता है। मानव चेतना भौतिक अवश्य है परन्तु इसकी भौतिकता जीवन व सामाजिक है। मानवीय चेतना का विकास मानव व्यवहार पर निर्भर है। खैर यह परिकल्पना फ्रेन्कनस्टाइन मॉन्स्टर की ज्यादा प्रतीत होती है जिसे केवल शरीर जोड़कर जि़न्दा किया जा सकता है और उसमें चेतना स्व ही पैदा हो जायेगी। केवल न्युरॉन की प्रतिलििप से चेतना नहीं बन सकती है।
इस परिकल्पना की अतार्किकता को पूर्णत: खारिज करने के लिए हम अल्फा गो द्वारा ज्ञान हासिल करने की प्रक्रिया को मानव से मुक्त किसी समानांतर कृत्रिम चेतना द्वारा ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया के रूप में देखने की कोशिश करते हैं जिससे इस तर्क की असंगतियाँ सामने आएँ। हम यह मान रहे हैं कि अल्फा गो मानवीय चेतना की प्रतिलिपी तैयार कर लेता है। अल्फा गो की कार्य प्रक्रिया को व्याख्यायित करते हुए एक शोध पत्र नेचर पत्रिका में पिछले साल छपा। यह न्यूरल नेटवर्क मोेन्टे कार्लो तकनीक का इस्तेमाल करता है। यह तकनीक रैण्डम नम्बर (सम-सम्भाविक संख्या) के जरिये नतीजे निकालती है। इसके जरिये सर्च ट्री का निर्माण किया जाता है। इस शोध पत्र में प्रस्तुत विवरण को हम ज्ञान की दो मंजिलों में व्याख्यायित करेंगे। यहाँ हमारा अभिप्राय मानवीय ज्ञान की मंजिलों से है। मानवीय ज्ञान व्यवहार से पैदा होता है। यह ज्ञान वापस व्यवहार को निर्देशित करता हैे और नया व्यवहार उन्नत स्तर का होता है जो आगे उन्नत ज्ञान को पैदा करता है। ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया में पहली मंजिल इन्द्रियग्राह्य ज्ञान की होती है जिसमें किसी वस्तु, जगह के बारे में तमाम तथ्य जानकारी, रूप, आकार आदि के बारे में जानकारी इकट्ठा होती है। इस समय कोई भी सामान्यीकरण नहीं बनता है। व्यवहार की जारी प्रक्रिया के चलते मानवीय ज्ञान में छलाँग लगती है और धारणाओं, सिद्धान्तों का जन्म होता है और ज्ञान की यह मंजिल बुद्धिसंगत ज्ञान कहलाती है। इस प्रकार ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया में ज्ञान व्यवहार से विकसित होते हुए इन्द्रियग्राह्य ज्ञान की मंजिल से होते हुए बुद्धिसंगत ज्ञान की मंजिल में पहुँचता है। मानवीय ज्ञान की इन मंजिलों को ही हम अल्फा गो पर लागू कर रहे हैं। पहले यह समझते हैं कि यह किस प्रकार किसी समस्या के बारे में ''इन्द्रियाग्रह्य ज्ञान'' हासिल करता है। इसके लिए वह किसी तस्वीर में, या दिए गये डेटा में आकार, रंग और ढर्रा ढूँढता है। यह कैसे होता है? एआई स्क्रीन पर मौजूद इनपुट पिक्सेल में रंगों व तीव्रता (इंटेंसिटी) के आधार पर पहली न्यूरोन की लेयर में हर न्यूरोन पर गणितीय प्रकार्य एक आउटपुट देता है। यह गणितीय प्रकार्य (मैथ्ाेमैटिकल फंक्शन) इस इनपुट को परिमाणों में बदल देता है। पहली परत के आउटपुट को एक दूसरी परत में जाना होता है जिसमें इनपुट का अन्य ढर्रे की पहचान करने वाला गणितीय प्रकार्य परिमाणात्मक नतीजा निकालता है। यह प्रक्रिया हर परत में दोहरायी जाती है। इस प्रकार अन्त तक इस तस्वीर को कई हिस्से में समझकर यह आखिरी परत में एक नतीजे पर पहुँचता है। गणितीय प्रकार्य ही आर्टिफिशियल न्युराॅन को 'ज्ञान' की इस मंजिल में ज्ञान अर्जन करने में मदद करता है। यह गणितिय प्रकार्य मानव ज्ञान का ही हिस्सा है जिसे अल्फा गो इस्तेमाल करता है। इसे शतरंज के खेल में किसी एक चाल के इनपुट के रूप में समझा जा सकता है।
लेकिन यह कोई चाल कैसे चलता है? यह किसी मानव से खेलने से पहले खुद अपने आप खेलता है। अल्फा गो न्यूरल नेटवर्क मोेन्टे कार्लो तकनीक का इस्तेमाल करता है। मोन्टे कार्लाे तकनीक रैण्डम नम्बर (सम-सम्भाविक संख्या) के जरिये चलती है। यानी यह पहले अपने आप खेलते हुए रैण्डम चाल चलता है। एक चाल की हार जीत की सम्भावना का परिमाणात्मक तौर पर भार (वेट) निकाला जाता है। जीत की अधिक सम्भावना वाली चाल का अधिक भार होगा। एक चाल से अन्य चाल रैण्डम नम्बर द्वारा चुनी जाती है और कई बार खेलने पर एक चाल के बाद रैण्डम नम्बर के द्वारा चुनी जाने वाली सम्भावित चालों के भार की गणना करता है। यह ऐसा है मानो तने से निकलने वाली कई शाखाएँ हो। इन सम्भावित चालों से भी अलग-अलग भारों की शाखाएँ निकलती हैं। अलग-अलग भार वाली चालों की शाखाएँ कुल मिलाकर पॉलिसी ट्री सर्च का निर्माण करती हैं। इस प्रकार ही अल्फा गो खेल की तमाम रणनीतियों को विकसित करता है। इन रणनीतियों पर पहुँचने के लिये वह उपरोक्त ट्री सर्च पद्धति के जरिये हर चाल और बोर्ड की सम्भािवत चालों का प्रभाव मूल्य पता लगाकर रणनीति विकसित कर लेता है।
ट्री (वृक्ष) सर्च (खोज) में करोड़ों बार मॉन्टे कार्लो सिमुलेशन किये जाते हैं जिससे कण्डिशनल लॉजिक (सनियम तर्क) विकिसत होता है जो बदले हुए इनपुट के अनुसार तर्क 'विकसित' करता है। इसमें अभी तक नया यह है कि सभी न्यूरल नेटवर्क को खेल की रणनीति को खुद सीखना होता है। इस प्रयोग में पहली बार अल्फा गो पूर्वनिर्मित पॉलिसी की जगह पॉलिसी निर्मित करता है। परन्तु यह मोन्टे कार्लो ट्री सर्च इंसान का ही तर्क है अल्फा गो ट्री सर्च आधारित न्यूरल नेटवर्क मानवीय ज्ञान की अवधारणा ही है जो ‘गो’ बोर्ड गेम में इस गेम के चैम्पियन को हराने में सफल हुई। इस व्याख्या से यह भी स्पष्ट है कि ''बुद्धिसंगत'' ज्ञान भी मानवीय अवधारणा का महज विस्तार है उसका प्रकार्य है। गणितीय प्रकार्य और उसके बाद विकसित होने वाली पॉलिसी मानव ज्ञान का ही अमल में लाया जाना है। परन्तु लम्बे समय से सिनेमा और पॉप्युलर साइन्स फ़िक्शन में यह सस्ती परिकल्पना परोसी जाती है कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेन्स (एआई) द्वारा मानवता के खिलाफ अपनी सभ्यता को खड़ा करेगी और मानवता को गुलाम बनाएगी। अंतिम बार जब गैरी कासपोरोव को ‘डीप ब्लू’ ने हराया तब भी इस छिछली परिकल्पना को काफी संवेग मिला था। इस बार गूगल द्वारा विकसित किया गया अल्फा गो काफी हद तक पुनः उन सभी भ्रामक अवधारणाओं को आग दे चुका है। एआई को मानवता के िख़लाफ रखना अपने आप में गलत है जो कि बार- बार यह कल्पना करता है कि इंसान को हटाकर मशीन से मुनाफा कमाने वाले तंत्र में काम लिया जा सकता है। अमरीका में एेसी फैिक्ट्रयाँ अस्तित्व में आयी हैं जहां पूरा काम मशीनों के जरिये होता है। इस कारण प्रगतिशील जमात भी मज़दूरों के उत्पादन से गायब होने को लेकर चिंतित है। एआई के कारण नौकरियों के खत्म होने की बात करना इस किस्म की फूहड़ परिकल्पनाओं का ही उदाहरण है। अगर आप बुनियादी राजनीतिक अर्थशास्त्रीय समझदारी को भी प्रयोग में लाएँ तो यह साफ है कि पूँजीपति के मुनाफे़ का स्रोत मज़दूर की श्रम शक्ति है। पूँजीपति द्वारा श्रम शक्ति पर लगायी पूँजी परिवर्तनशील पूँजी कहलाती है और यही अतिरिक्त मूल्य पैदा करती है। पूँजीवाद में मालिक दो प्रतिस्पर्धाओं में उलझा होता है। पूँजीपतियों के बीच मौजूद कीमतों को कम करने की प्रतिस्पर्धा तो दूसरी तरफ मज़दूरों और पूँजीपतियों के बीच वेतन को कम करने व बढाने की प्रतिस्पर्धा। उत्पादन के एक क्षेत्र में कम कीमत पर माल बेचने के लिये मशीनीकरण के जरिये पूँजीपति उत्पादकता बढ़ाता है जिससे कि बाज़ार कीमत से सस्ता माल बेच सके। जो अमरिकी पूँजीपति अपनी फैक्ट्री में पूर्ण ऑटोमैशन का प्रयोग कर रहे हैं वे सस्ते में माल बेचते हैं और अन्य पूँजीपतियों द्वारा लूटे अतिरिक्त मूल्य को लूटते हैं। उनके मुनाफे़ का स्रोत श्रम श्ाक्ति ही है परन्तु वह खुद उसकी फैक्ट्री में नहीं लगी होती है। फिलहाल हम इस प्रक्रिया की जटिलता में नहीं जाते हैं और इतना समझते हैं कि सस्ता माल बेचने की होड़ पूँजीपतियों को पहले एक क्षेत्र में और फिर अन्य क्षेत्रों में भी उत्पादकता बढ़ाने हेतु मशीनीकरण करने को मजबूर करती है। मशीनरी के प्रयोग से लगातार स्थिर पूँजी (मशीनरी, कच्चा माल आदि) पहले के मुकाबले कम परिवर्तनशील पूँजी (श्रम शक्ति) को सोखती है। यही अन्तत: संकट को जन्म देता है जिसका समाधान पूँजी के डिवेैलराइज़ेशन यानी तबाही के जरिये होता है। खैर संकट में क्या होता है यह अभी हमारी चर्चा के दायरे से बाहर है। परन्तु सवाल यह है कि क्या ऐसा भी होगा कि स्थिर पूँजी और परिवर्तनशील पूँजी के अनुपात में परिवर्तनशील पूँजी कम होते होते शून्य पर पहुँच जाएगी? नहीं क्योंकि तब मुनाफा ही खत्म हो जायेगा।
उत्पादक शक्तियों का विकास असीमित है और इसके साथ ही मानवीय श्रम के रूप भी असीमित हैं। एआई के कारण मानवीय श्रम नये कदम उठाता है न कि यह इसके खिलाफ खड़ा होता है। मौजूदा व्यवस्था इस तक्नोलोजी को श्रम के बरक्स ला खड़ा करती है और मशीन और श्रम के बीच जो अंतर्विरोध पैदा होता है उसका ही आर्टीकुलेशन इस परिकल्पना में होता है कि मशीन इंसान को गुलाम बना लेगी। जिस तरह एक भाला, एक कुल्हाड़ी उसके हाथ के और उसके दाँतों के विस्तार थे यह मानव मष्तिष्क का ही विस्तार महज है। हजारों कम्प्यूटर को जोड़कर अल्फा गो प्रोग्राम चलता है और इस तरह के ही इमेज डिटेक्टर, वॉइस डिटेक्टर जिन्हें हम रोज़ अपने स्मार्ट फोन पर इस्तेमाल करते हैं इस न्यूरल नेटवर्क का ही उदाहरण है। जिस तरह एक रोबोटिक आर्म से पंजा लड़ने में मनुष्य हार सकता है और अल्फा गो गेम में मनुष्य हार सकता है यह मानव बनाम मशीन नहीं मानव बनाम मशीन+मानव है। मशीन मानव के औजारों और इस तरह उसके अंगों और उसकी सम्वेदनाओं को विस्तारित करते हैं। परन्तु इसे जिस फूहड़ फेंटेसी में तब्दील किया गया है वह यह है कि अब मशीनें उत्पादन से मनुष्य को हटा देंगी। अगले अंक में हम विज्ञान जगत के दो शोध, इंटेगल्ड फोटोन व डार्क मैटर पर फैलायी जा रही दार्शनिक ध्ाुन्ध्ा पर विस्तार से बात करेंगे। (अगले अंक में जारी)
{लेख आह्वान जुलाई-दिसम्बर 2019 अंक में प्रकाशित हुआ}
प्राकृतिक विज्ञान में दार्शनिक उलझन
दरअसल विज्ञान जगत में जिन दार्शनिक प्रणालियों का बोलबाला है वे अक्सर काॅम्टे के ‘पॉज़िटिव साइन्स’ से माख के अनुभवसिद्ध आलोचना दर्शन से होते हुए नव-काण्टवादी अन्तर्वस्तु तक पहुँचती हैं। आज बक़ायदा दर्शन की एक धारा के रूप में विज्ञान दर्शन अस्तित्व में आया है जिसके सितारे कार्ल पॉपर, थॉमस कुन और पॉल फेयराबैंड हैं जिनका वैज्ञानिकों पर अच्छा खासा प्रभाव है।
पॉपर से लेकर कुन और ‘अगेन्स्ट मेथड’ लिखने वाले दार्शनिक फेयराबैंड नव-काण्टवाद की धुन्ध फैलाते हैं। ये सभी 20 वीं शताब्दी में विज्ञान के विकास और बहसों की अन्तर्वस्तु में जाये बिना, आइन्सटाइन के सिद्धान्तों, उनके सिद्धान्त के दार्शनिक मर्म का खंडन किये बगैर तथा हाइज़ेनबर्ग से श्रोडिंगर और फिर आगे क्वांटम मैकेनिक्स को बढ़ाने वाले डिराक द्वारा प्रतिपादित फ़ील्ड िथयरी के विकास और उसके तमाम मॉडल को विस्तारित करने वाले बेल, फेयनमेन सरीखे वैज्ञानिकों के द्वारा विकसित प्रणाली को आगे बढ़ाने की जगह विज्ञान के विकास पर ही प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं। पॉपर सरीखे ‘प्राकृतिक विज्ञान दार्शनिक’ द्वन्द्व समझ पाने में असमर्थ हैं। पॉपर के अनुसार कोई भी सिद्धान्त जबतक सभी व्यावहारिक अनुभवों पर सत्यापित होता है वह सही होता है और अगर एक बार भी वह सत्यापित न हो तो सिद्धान्त पूणत: गलत हो जाता है। इसके इलावा हर सामान्यीकरण अमान्य होता है। पॉपर दरअसल भौंडे व्यवहारवादी हैं जो कि यह बता नहीं सकते कि कोई नया सिद्धान्त किस तरह बनता है। यह सवाल उनके लिए ‘हिट एण्ड ट्रायल’ सरीखा है। वे ऐतिहासिकता को खारिज कर देते हैं और फिर किसी भी सिद्धान्त का पैदा होना महज संयोग और जीनियस के कारण होता प्रतीत होता है। दूसरी तरफ़ फेयराबैंड के दर्शन में भी विज्ञान के विकास में कोई निरन्तरता ढूँढ़ना मूर्खता कहलाती है। यह ड्युई के अभिकरणवाद और व्यवहारवाद का ही प्राकृतिक विज्ञान का दार्शनिक रूप है। थामस कुन इन दोनों की आलोचना यह कहते हुए करते हैं कि हर व्यवहार दरअसल पुराने सिद्धान्त की रोशनी में ही आगे बढ़ता है और विज्ञान का विकास इतिहास पर निर्भर करता है और यह विकास महज ‘हिट एण्ड ट्रायल’ पर आधारित नहीं है। परन्तु कुन का इतिहास ऐतिहासिक नहीं है बल्कि केवल घटनाओं का कुल सम्मुचय बन कर रह जाता है जो यह नहीं बता सकता कि क्यों विज्ञान का विकास खास ऐतिहासिक काल क्रम में हुआ और कुछ खास कालक्रम में नहीं। यह विज्ञान के मौजूदा संकट को भी समझाने में अक्षम है। आज इन विज्ञान के दार्शनिकों के इलावा विज्ञान में ईश्वर के लिए जगह ढूँढने वाले, हाइजनबर्ग, ओस्टवाल्ड और पॉइन्केअर के चेले फिर सर उठा रहे हैं जबकि इतिहास में इनके दर्शनों के सर कलम किये जा चुके हैं। गफलतों की एक पूरी परत आज विज्ञान की उन बहसों पर पड़ी है जिससे आगे बढ़कर विज्ञान की शाखाएँ विकसित होतीं परन्तु पूँजी के बोन्साई गमलों में विज्ञान का विखण्डित विकास होता है। भौतिकवादी चिन्तन से कोसों दूर खड़े विज्ञान में जब भी नयी खोज होती है तो हाय-तौबा मच उठती है। पेराडाइम की ऐतिहासिकता को समझे बिना ‘पेराडाईम शिफ़्ट’ का इंतज़ार कर रहे वैज्ञानिक अटके हुए हैं और भटके हुए हैं। इतिहास की गतिकी में विज्ञान के विकास को समझने की जगह पैराडाईम वस्तुगतता से मुक्त बन गया।
इन दार्शनिकों की जो मूल समझदारी है वह प्राकृतिक विज्ञान के दर्शन द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी से इतर है। आगे इनके पूर्ण चिन्तन जगत में विचरण करने हुए हम इनके वैज्ञानिक सिद्धान्तों के मूल्यांकनों पर भी बात करेंगे जिससे कि इस बात को समझा जा सके कि कैसे इनका चिन्तन रोलर-कोस्टर झूले की तरह है जो गोल-गोल घूमकर विचारों को कहीं आगे नहीं बढ़ता है, हाँ आपको चक्कर ज़रूर आने लगता है। इस दार्शनिक उलझन को पॉप्युलर साइंस के नाम पर लोगों में पेश करने वाले ऐसे ही एक युवाल नोवा हरारी है जिसके अनुसार जल्द ही बिग डॉटा व एआई के बढ़ने के कारण डाटाइज़्म नामक एक नयी विचारधारा पैदा होगी जिसमें मानवीय चेतना की जगह एआई की समझ व बिग डाटा से फैसले किये जाएँगे। इस समय मानवों की प्रजाति होमो सेपियेन्स की जगह होमो ड्युस पैदा होगा जिसके जीवन का आधार सूचना होगा। यह तो मूर्खता का केवल ऊपरी भाग है अभी हमें इस मूर्खता के हिमखण्ड के निचले भाग तक पहुँचना है। आर्टिफिशियल इंटैलिजैन्स की तकनोलोजी को लेकर मौजूद भ्रमों पर हम अपनी बात यहाँ रख रहे हैं।
अल्फा गो का प्रयोग: मानवीय चेतना पर मँडराता खतरा
आज स्मार्ट फोन में गूगल असिस्टेंट, सिरी से लेकर गूगल इमेज सर्च में, कम्युप्टर गेम्स में, शेयर बाज़ार के उतार-चढ़ाव को समझने में आर्टिफिशियल इन्टेलिजेन्स का इस्तेमाल हो रहा है। इसका उदाहरण गूगल इमेज सर्च होता है। मसलन इमेज सर्च करने वाले एआई को इनपुट के तौर पर एक तस्वीर जिसमें टै्फिक लाइट हो और एक अन्य तस्वीर जिसमें टै्फिक लाइट न हो का इनपुट दिया जाये। नतीजे के तौर पर हम चाहते हैं कि एआई उस तस्वीर काे पहचाने जिसमें ट्रेफिक लाइट नहीं है तो यह काफी हद तक तस्वीरों में सही मूल्यांकन कर लेती है। अल्फा गो ‘गो’ बोर्ड गेम को खेलने वाला गूगल द्वारा बनाया आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स प्रोग्राम है जिसने मौजूदा मानव चैम्पियन को खेल में हरा दिया। यानी यह कम्पयुटर आधारित प्रोग्राम है जिसे चलाने के लिए काफी उन्नत गति वाले कम्युप्टर की ज़रूरत होती है। इस तकनोलोजी को समझना ज़रूरी है अन्यथा लोग ऐसे नतीजों पर पहुँचेंगे कि जल्द ही मशीन इंसान को गुलाम बना लेगी। अल्फा गो द्वारा गो गेम में विजयी होना कुछ साल पहले हुए गैरी कास्पारोव और डीप ब्लू के बीच मैच की स्मृति याद दिलाता है। इस घटना पर हमने आह्वान के पन्नों पर पहले भी लिखा था। आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स के उद्भव और इसके विकास को समझने के लिए पाठक वह लेख पढ़ सकते हैं। जहाँ डीप ब्लू सिम्बोलिक आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स पर आधारित था तो अल्फा गो न्यूरल नेटवर्क पर आधारित है। सिम्बोलिक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस किसी समस्या को उसके हिस्सों, उसके आपसी सम्बन्धों और प्रक्रिया का इनपुट मिलने पर हल कर लेता था। इसकी इसलिए आलोचना की गयी कि यह किसी समस्या को समझता नहीं है बल्कि मशीनी गणना के आधार पर सुलझाता है और इंसानों द्वारा इस्तेमाल की गयी रणनीतियों पर निर्भर होता है। इससे आगे बढ़कर ही मानवीय न्यूरॉन तंत्र के आधार पर 'आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क' बनाया गया जिसका मकसद वास्तव में समस्याओं को ''समझना'' है। इस कृत्रिम तंत्र में तमाम आर्टिफिशियल न्यूरान एक दूसरे से जुड़े होते हैं जो नेटवर्क कहलाता है। न्यूरान की कई परतें एक दूसरे के साथ जुड़ी होती हैं। कुछ महानुभवों का दावा यह है कि इस कृत्रिम तंत्र में चेतना पैदा हो जाती है। इसका ढाँचा नीचे तस्वीर में दिया गया है।
मानव के तंत्रिका तंत्र की प्रतिलििप में चेतना पैदा हो जाने के दावे की पड़ताल करते हैं। 'आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क' एक उन्नत मशीन ही है। मशीन एक जटिल औजार है और औजार एक साधारण मशीन। औजार या मशीन अन्तत: मानवीय इन्द्रियों और उसके अंगाें का ही विस्तार होते हैं। कृत्रिम चेतना को मानव चेतना से मुक्त चेतना मानना व यह कल्पना करना कि चेतना कोई ऐसी चीज़ है जो मानव के बाहर भी निर्मित की जा सकती है यांत्रिक भौतिकवादी अवधारणा है। यांत्रिक भौतिकवादी चेतना को बिजली के समान मानते हैं जिसे प्राकृतिक रूप मंे बादलों की टकराहट में पाया जाता है तो उसे बाँध में पानी को टरबाइन पर गिराकर भी पैदा किया जा सकता है। बिलकुल ऐसा ही गूगल के पीटर नॉरविग का तर्क है कि जिस तरह पक्षी की उड़ान को कृत्रिम तौर पर हवाई जहाज भी उड़ सकता हैे इसी प्रकार मानव मष्तिष्क की चेतना को मशीन में पैदा किया जा सकता है। परन्तु चेतना कोई प्रोटिन का मॉलिक्युलर संरचना या बिजली नहीं बल्कि मानव मष्तिष्क पुँज आधारित भौतिक यथार्थ है जो जीवन के जटिल तानेबाने यानी समाज में विकसीत होती है। चेतना द्वारा अर्जित मानव ज्ञान मानव के उत्पादक, सामाजिक संघर्ष और वैज्ञानिक प्रयोगों के व्यवहार से पैदा होता है। इस कारण ही मानव ज्ञान नित निरंतर उथले से गहरेपन की ओर बढ़ता है। मानव चेतना भौतिक अवश्य है परन्तु इसकी भौतिकता जीवन व सामाजिक है। मानवीय चेतना का विकास मानव व्यवहार पर निर्भर है। खैर यह परिकल्पना फ्रेन्कनस्टाइन मॉन्स्टर की ज्यादा प्रतीत होती है जिसे केवल शरीर जोड़कर जि़न्दा किया जा सकता है और उसमें चेतना स्व ही पैदा हो जायेगी। केवल न्युरॉन की प्रतिलििप से चेतना नहीं बन सकती है।
इस परिकल्पना की अतार्किकता को पूर्णत: खारिज करने के लिए हम अल्फा गो द्वारा ज्ञान हासिल करने की प्रक्रिया को मानव से मुक्त किसी समानांतर कृत्रिम चेतना द्वारा ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया के रूप में देखने की कोशिश करते हैं जिससे इस तर्क की असंगतियाँ सामने आएँ। हम यह मान रहे हैं कि अल्फा गो मानवीय चेतना की प्रतिलिपी तैयार कर लेता है। अल्फा गो की कार्य प्रक्रिया को व्याख्यायित करते हुए एक शोध पत्र नेचर पत्रिका में पिछले साल छपा। यह न्यूरल नेटवर्क मोेन्टे कार्लो तकनीक का इस्तेमाल करता है। यह तकनीक रैण्डम नम्बर (सम-सम्भाविक संख्या) के जरिये नतीजे निकालती है। इसके जरिये सर्च ट्री का निर्माण किया जाता है। इस शोध पत्र में प्रस्तुत विवरण को हम ज्ञान की दो मंजिलों में व्याख्यायित करेंगे। यहाँ हमारा अभिप्राय मानवीय ज्ञान की मंजिलों से है। मानवीय ज्ञान व्यवहार से पैदा होता है। यह ज्ञान वापस व्यवहार को निर्देशित करता हैे और नया व्यवहार उन्नत स्तर का होता है जो आगे उन्नत ज्ञान को पैदा करता है। ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया में पहली मंजिल इन्द्रियग्राह्य ज्ञान की होती है जिसमें किसी वस्तु, जगह के बारे में तमाम तथ्य जानकारी, रूप, आकार आदि के बारे में जानकारी इकट्ठा होती है। इस समय कोई भी सामान्यीकरण नहीं बनता है। व्यवहार की जारी प्रक्रिया के चलते मानवीय ज्ञान में छलाँग लगती है और धारणाओं, सिद्धान्तों का जन्म होता है और ज्ञान की यह मंजिल बुद्धिसंगत ज्ञान कहलाती है। इस प्रकार ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया में ज्ञान व्यवहार से विकसित होते हुए इन्द्रियग्राह्य ज्ञान की मंजिल से होते हुए बुद्धिसंगत ज्ञान की मंजिल में पहुँचता है। मानवीय ज्ञान की इन मंजिलों को ही हम अल्फा गो पर लागू कर रहे हैं। पहले यह समझते हैं कि यह किस प्रकार किसी समस्या के बारे में ''इन्द्रियाग्रह्य ज्ञान'' हासिल करता है। इसके लिए वह किसी तस्वीर में, या दिए गये डेटा में आकार, रंग और ढर्रा ढूँढता है। यह कैसे होता है? एआई स्क्रीन पर मौजूद इनपुट पिक्सेल में रंगों व तीव्रता (इंटेंसिटी) के आधार पर पहली न्यूरोन की लेयर में हर न्यूरोन पर गणितीय प्रकार्य एक आउटपुट देता है। यह गणितीय प्रकार्य (मैथ्ाेमैटिकल फंक्शन) इस इनपुट को परिमाणों में बदल देता है। पहली परत के आउटपुट को एक दूसरी परत में जाना होता है जिसमें इनपुट का अन्य ढर्रे की पहचान करने वाला गणितीय प्रकार्य परिमाणात्मक नतीजा निकालता है। यह प्रक्रिया हर परत में दोहरायी जाती है। इस प्रकार अन्त तक इस तस्वीर को कई हिस्से में समझकर यह आखिरी परत में एक नतीजे पर पहुँचता है। गणितीय प्रकार्य ही आर्टिफिशियल न्युराॅन को 'ज्ञान' की इस मंजिल में ज्ञान अर्जन करने में मदद करता है। यह गणितिय प्रकार्य मानव ज्ञान का ही हिस्सा है जिसे अल्फा गो इस्तेमाल करता है। इसे शतरंज के खेल में किसी एक चाल के इनपुट के रूप में समझा जा सकता है।
लेकिन यह कोई चाल कैसे चलता है? यह किसी मानव से खेलने से पहले खुद अपने आप खेलता है। अल्फा गो न्यूरल नेटवर्क मोेन्टे कार्लो तकनीक का इस्तेमाल करता है। मोन्टे कार्लाे तकनीक रैण्डम नम्बर (सम-सम्भाविक संख्या) के जरिये चलती है। यानी यह पहले अपने आप खेलते हुए रैण्डम चाल चलता है। एक चाल की हार जीत की सम्भावना का परिमाणात्मक तौर पर भार (वेट) निकाला जाता है। जीत की अधिक सम्भावना वाली चाल का अधिक भार होगा। एक चाल से अन्य चाल रैण्डम नम्बर द्वारा चुनी जाती है और कई बार खेलने पर एक चाल के बाद रैण्डम नम्बर के द्वारा चुनी जाने वाली सम्भावित चालों के भार की गणना करता है। यह ऐसा है मानो तने से निकलने वाली कई शाखाएँ हो। इन सम्भावित चालों से भी अलग-अलग भारों की शाखाएँ निकलती हैं। अलग-अलग भार वाली चालों की शाखाएँ कुल मिलाकर पॉलिसी ट्री सर्च का निर्माण करती हैं। इस प्रकार ही अल्फा गो खेल की तमाम रणनीतियों को विकसित करता है। इन रणनीतियों पर पहुँचने के लिये वह उपरोक्त ट्री सर्च पद्धति के जरिये हर चाल और बोर्ड की सम्भािवत चालों का प्रभाव मूल्य पता लगाकर रणनीति विकसित कर लेता है।
ट्री (वृक्ष) सर्च (खोज) में करोड़ों बार मॉन्टे कार्लो सिमुलेशन किये जाते हैं जिससे कण्डिशनल लॉजिक (सनियम तर्क) विकिसत होता है जो बदले हुए इनपुट के अनुसार तर्क 'विकसित' करता है। इसमें अभी तक नया यह है कि सभी न्यूरल नेटवर्क को खेल की रणनीति को खुद सीखना होता है। इस प्रयोग में पहली बार अल्फा गो पूर्वनिर्मित पॉलिसी की जगह पॉलिसी निर्मित करता है। परन्तु यह मोन्टे कार्लो ट्री सर्च इंसान का ही तर्क है अल्फा गो ट्री सर्च आधारित न्यूरल नेटवर्क मानवीय ज्ञान की अवधारणा ही है जो ‘गो’ बोर्ड गेम में इस गेम के चैम्पियन को हराने में सफल हुई। इस व्याख्या से यह भी स्पष्ट है कि ''बुद्धिसंगत'' ज्ञान भी मानवीय अवधारणा का महज विस्तार है उसका प्रकार्य है। गणितीय प्रकार्य और उसके बाद विकसित होने वाली पॉलिसी मानव ज्ञान का ही अमल में लाया जाना है। परन्तु लम्बे समय से सिनेमा और पॉप्युलर साइन्स फ़िक्शन में यह सस्ती परिकल्पना परोसी जाती है कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेन्स (एआई) द्वारा मानवता के खिलाफ अपनी सभ्यता को खड़ा करेगी और मानवता को गुलाम बनाएगी। अंतिम बार जब गैरी कासपोरोव को ‘डीप ब्लू’ ने हराया तब भी इस छिछली परिकल्पना को काफी संवेग मिला था। इस बार गूगल द्वारा विकसित किया गया अल्फा गो काफी हद तक पुनः उन सभी भ्रामक अवधारणाओं को आग दे चुका है। एआई को मानवता के िख़लाफ रखना अपने आप में गलत है जो कि बार- बार यह कल्पना करता है कि इंसान को हटाकर मशीन से मुनाफा कमाने वाले तंत्र में काम लिया जा सकता है। अमरीका में एेसी फैिक्ट्रयाँ अस्तित्व में आयी हैं जहां पूरा काम मशीनों के जरिये होता है। इस कारण प्रगतिशील जमात भी मज़दूरों के उत्पादन से गायब होने को लेकर चिंतित है। एआई के कारण नौकरियों के खत्म होने की बात करना इस किस्म की फूहड़ परिकल्पनाओं का ही उदाहरण है। अगर आप बुनियादी राजनीतिक अर्थशास्त्रीय समझदारी को भी प्रयोग में लाएँ तो यह साफ है कि पूँजीपति के मुनाफे़ का स्रोत मज़दूर की श्रम शक्ति है। पूँजीपति द्वारा श्रम शक्ति पर लगायी पूँजी परिवर्तनशील पूँजी कहलाती है और यही अतिरिक्त मूल्य पैदा करती है। पूँजीवाद में मालिक दो प्रतिस्पर्धाओं में उलझा होता है। पूँजीपतियों के बीच मौजूद कीमतों को कम करने की प्रतिस्पर्धा तो दूसरी तरफ मज़दूरों और पूँजीपतियों के बीच वेतन को कम करने व बढाने की प्रतिस्पर्धा। उत्पादन के एक क्षेत्र में कम कीमत पर माल बेचने के लिये मशीनीकरण के जरिये पूँजीपति उत्पादकता बढ़ाता है जिससे कि बाज़ार कीमत से सस्ता माल बेच सके। जो अमरिकी पूँजीपति अपनी फैक्ट्री में पूर्ण ऑटोमैशन का प्रयोग कर रहे हैं वे सस्ते में माल बेचते हैं और अन्य पूँजीपतियों द्वारा लूटे अतिरिक्त मूल्य को लूटते हैं। उनके मुनाफे़ का स्रोत श्रम श्ाक्ति ही है परन्तु वह खुद उसकी फैक्ट्री में नहीं लगी होती है। फिलहाल हम इस प्रक्रिया की जटिलता में नहीं जाते हैं और इतना समझते हैं कि सस्ता माल बेचने की होड़ पूँजीपतियों को पहले एक क्षेत्र में और फिर अन्य क्षेत्रों में भी उत्पादकता बढ़ाने हेतु मशीनीकरण करने को मजबूर करती है। मशीनरी के प्रयोग से लगातार स्थिर पूँजी (मशीनरी, कच्चा माल आदि) पहले के मुकाबले कम परिवर्तनशील पूँजी (श्रम शक्ति) को सोखती है। यही अन्तत: संकट को जन्म देता है जिसका समाधान पूँजी के डिवेैलराइज़ेशन यानी तबाही के जरिये होता है। खैर संकट में क्या होता है यह अभी हमारी चर्चा के दायरे से बाहर है। परन्तु सवाल यह है कि क्या ऐसा भी होगा कि स्थिर पूँजी और परिवर्तनशील पूँजी के अनुपात में परिवर्तनशील पूँजी कम होते होते शून्य पर पहुँच जाएगी? नहीं क्योंकि तब मुनाफा ही खत्म हो जायेगा।
उत्पादक शक्तियों का विकास असीमित है और इसके साथ ही मानवीय श्रम के रूप भी असीमित हैं। एआई के कारण मानवीय श्रम नये कदम उठाता है न कि यह इसके खिलाफ खड़ा होता है। मौजूदा व्यवस्था इस तक्नोलोजी को श्रम के बरक्स ला खड़ा करती है और मशीन और श्रम के बीच जो अंतर्विरोध पैदा होता है उसका ही आर्टीकुलेशन इस परिकल्पना में होता है कि मशीन इंसान को गुलाम बना लेगी। जिस तरह एक भाला, एक कुल्हाड़ी उसके हाथ के और उसके दाँतों के विस्तार थे यह मानव मष्तिष्क का ही विस्तार महज है। हजारों कम्प्यूटर को जोड़कर अल्फा गो प्रोग्राम चलता है और इस तरह के ही इमेज डिटेक्टर, वॉइस डिटेक्टर जिन्हें हम रोज़ अपने स्मार्ट फोन पर इस्तेमाल करते हैं इस न्यूरल नेटवर्क का ही उदाहरण है। जिस तरह एक रोबोटिक आर्म से पंजा लड़ने में मनुष्य हार सकता है और अल्फा गो गेम में मनुष्य हार सकता है यह मानव बनाम मशीन नहीं मानव बनाम मशीन+मानव है। मशीन मानव के औजारों और इस तरह उसके अंगों और उसकी सम्वेदनाओं को विस्तारित करते हैं। परन्तु इसे जिस फूहड़ फेंटेसी में तब्दील किया गया है वह यह है कि अब मशीनें उत्पादन से मनुष्य को हटा देंगी। अगले अंक में हम विज्ञान जगत के दो शोध, इंटेगल्ड फोटोन व डार्क मैटर पर फैलायी जा रही दार्शनिक ध्ाुन्ध्ा पर विस्तार से बात करेंगे। (अगले अंक में जारी)
{लेख आह्वान जुलाई-दिसम्बर 2019 अंक में प्रकाशित हुआ}
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अगले अंक का इंतजार है
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